मनोज नौडियाल
कोटद्वार। जब भी हम किसी देश या प्रदेश के बारे में सोचते हैं तो सबसे पहले वहां की संस्कृति, वेश-भूषा व खानपान का ख्याल हमारे जहन में आ ही जाता है। क्योंकि किसी भी क्षेत्र की पहचान उसकी वेश-भूषा, रहन-सहन, उसके संस्कारो व उसकी संस्कृति से झलकती है।
लेखिका - नीलम चमोली,
शिक्षिका एवं समाज सेविका,
ऋषिकेश, उत्तराखंड।
मैं एक उत्तराखंडी हूँ तो स्वाभाविक है कि मुझे अपने उत्तराखण्ड की हर बात से प्रेम होगा ही तथा मुझे इस बात का गर्व है।
चाहे वो यहां का खुशनुमा मौसम व प्राकृतिक छटा हो या पारंपरिक पहनावे व आभूषण जैसे नथुलि (नथ), हंसुली (गले का हार), धगुली (हाथ में पहने जाने वाला), पौंछी (हाथ में पहने जाने वाला), पिछोड़ि (ओढनी) हो या पारंपरिक खानपान जैसे फाणु,पालक की काफली, थिचवानी, चेंसा भात, राजमा की दाल, सिडकु, अस्के और कोदे(मंडुआ) की रोटी के साथ भांग ओर तिल की चटनी हो, तो फिर चाहे कितने ही राजसी पकवान परोस दिए जाएं पर इन सबका मुकाबला नही कर सकते। क्यों सही कह रही हूं न??
अभी हाल ही में एक पारिवारिक विवाह समारोह में मसूरी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विवाह एक बड़े होटल में रखा गया था। यानी डेस्टिनेशन वेडिंग। डेस्टिनेशन वैडिंग मतलब जिसमे दूल्हा और दुल्हन पक्ष एक ही होटल में ठहरते हैं और सभी रस्में वही पर निभाई जाती हैं। जिसमे शामिल होने का ये मेरा प्रथम अनुभव था। मन मे कई सवाल भी थे। जैसे कि कही यह विवाह हमारे रीति रिवाजो के अनुरूप होगा या सभी मान्यताओ को दरकिनार कर आधुनिकता के रंगों में रंगा होगा।
खैर मन मे विवाह में शामिल होने की खुशी और कुछ प्रश्न लिए हम पहुँच गए मसूरी। होटल शानदार था।
पहाड़ के पारंपरिक ओढनी एवं गहने
अगली सुबह हल्दी हाथ की रश्म के साथ विवाह की रश्मो की शुरुआत हो गयी। सभी महिलाएं पीली साड़ी ओर अपने परंपरागत गहने पहन कर फ्योंली के फूल की तरह नज़र आ रही थी। परंपरा, संस्कार व सुंदरता का अनूठा रूप दिखाई दे रहा था। बांद (दुल्हन को हल्दी लगाना) की रश्म चल रही थी। एक तरफ महिलायें मांगल गीत गा रही थी। वही दूसरी ओर ढोल-दमारू एवं नरसिंघा (पहाड़ी वाध्य यंत्र) की धुन बज रही थी। कभी "बेडु पाको बारामासा" कुमाउँनी गीत तो कभी गढ़वाली गीत "फ्योलड़िया" गाया जा रहा तो, दूसरी तरफ "घोटा सिमनिया" जौनसारी गीत पर कुछ लोग तांदी नृत्य (जौनसारीनृत्य) कर रहे थे और कुछ लोग उसको सीखने की कोशिश कर रहे थे।
दुल्हन सहित कुछ महिलाओं ने कुमाउँनी पिछोड़ा पहना था, तो कुछ ने देवप्रयागी ओढनी पहनी थी। पुरुषों ने कुर्ता पायजामा के साथ जौनसारी टोपी पहनी हुई थी। क्या खूब सूरत नज़ारा लग रहा था। रात को बारात आयी, सभी रश्मों के साथ विवाह सम्पन हुआ। हमारी उत्तराखण्डी संस्कृति का ऐसा मिलाजुला और रंग बिरंगा रूप देखकर जो सुखद अनुभूति हुई उसको शब्दो मे बयाँ करना मुश्किल है।
अगली सुबह का नज़ारा देखकर यकीन नही हुआ। डोली........ , दुल्हन की विदाई के लिए डोली सजाई गई थी। डोली की रश्म जो की लुप्त हो चुकी थी वहां देखने को मिली। बड़ा अच्छा लगा। जब डोली उठी सभी की आँखे नम थी और दादी, नानी, ताई चाची द्वारा उडद की दाल और चावल दुल्हन के ऊपर से उच्या कर (घुमाकर) चारो दिशाओ में समर्पित कर दिए गए जो की एक रिवाज ही है। मश्क बाजे की विदाई धुन के साथ दुल्हन विदा हो गयी।
डोली - दुल्हन की विदाई हेतु।
कहते है कि संस्कृति लुप्त हो रही है। लेकिन मेरा मानना है कि हमारी संस्कृति कभी लुप्त नही होती बल्कि एक नए रूप और नए अंदाज के साथ हमारे साथ ही रहती है। हमारे पारम्परिक रीति रिवाज आधुनिकता के मिश्रण के साथ फिर से हमारी संस्कृति को ओर भी अधिक खूबसूरती के साथ जीवंत कर रहे हैं। साथ ही साथ उसमे गढ़वाली, कुमाउनी एवं जौनसारी संस्कृति का समावेश हमारी अनूठी संस्कृति को इंद्रधनुषी रंग प्रदान कर रहे हैं। अपनी बोली, भाषा, रहन सहन, पहनावा, रीति-रिवाज हमारी पहचान है तथा ये हमारा आत्म सम्मान भी हैं। इनका मान करने के साथ साथ इनको अधिकाधिक अपनाकर प्रचार प्रसार करें ताक़ि हमारी आने वाली पीढ़ी को एक सुंदर और संस्कृति के अलग अलग रंगों से सजा, सादगी और सुंदरता से परिपूर्ण उत्तराखंड मिल सके ।
जय उत्तराखंड
1 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर वर्णन 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं